• दादी-अम्मा

    आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे। सुन्दर सलोनी बहुएँ, खिलखिलाती बेटियाँ, युवा बेटे। घर की मालकिन मेहराँ अपने हरे-भरे परिवार को देखती है और सुख में भीग जाती हैं यह पाँचों बच्चे उसकी उमर-भर की कमाई हैं।

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    —  कृष्णा सोबती
    बहार फिर आ गई। आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे। सुन्दर सलोनी बहुएँ, खिलखिलाती बेटियाँ, युवा बेटे। घर की मालकिन मेहराँ अपने हरे-भरे परिवार को देखती है और सुख में भीग जाती हैं यह पाँचों बच्चे उसकी उमर-भर की कमाई हैं। उसे वे दिन नहीं भूलते जब ब्याह के बाद छह वर्षों तक उसकी गोद नहीं भरी थी। छह वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद सर्दियों की एक लम्बी रात में करवट बदलते-बदलते मेहराँ को पहली बार लगा था कि जैसे नर्म-नर्म लिहाफ़ में वह सिकुड़ी पड़ी है, वैसे ही उसमें, गहरे कोई धड़कन उससे लिपटी आ रही है। सास ने भाँपकर प्यार बरसाया था: 'बहू, अपने को थकाओ मत, जो सहज-सहज कर सको, करो। बाकी मैं सँभाल लूँगी।'


    मेहराँ की गोद से इस परिवार की बेल बढ़ी है। आज घर में तीन बेटे हैं, उनकी बहुएँ हैं। ब्याह देने योग्य दो बेटियाँ हैं। हल्के-हल्के कपड़ों में लिपटी उसकी बहुएँ उसके सामने झुकती हैं। बिल्कुल ऐसे ही वह भी कभी सास के सामने झुकती थी। आज तो वह तीखी , निगाहवाली मालकिन, बच्चों की दादी-अम्मा बनकर रह गई है। पिछवाड़े के कमरे में से जब दादा के साथ बोलती हुई अम्मा की आवाज़ आती है तो पोते क्षण-भर ठिठककर अनसुनी कर देते हैं। बहुएँ एक-दूसरे को देखकर मन-ही-मन हँसती हैं। लाड़ली बेटियाँ सिर हिला-हिलाकर खिलखिलाती हुई कहती हैं, 'दादी-अम्मा बूढ़ी हो आई, पर दादा से झगड़ना नहीं छोड़ा।'


    मेहराँ भी कभी-कभी पति के निकट खड़ी हो कह देती है, 'अम्मा नाहक बापू के पीछे पड़ी रहती हैं। बहू-बेटियोंवाला घर है, क्या यह अच्छा लगता है?'
    पति एक बार पढ़ते-पढ़ते आँखें ऊपर उठाते हैं। पल-भर पत्नी की ओर देख दोबारा पन्ने पर दृष्टि गड़ा देते हैं। अम्मा तो सचमुच उठते-बैठते बोलती है, झगड़ती है, झुकी कमर पर हाथ रखकर वह चारपाई से उठकर बाहर आती है तो जो सामने हो उस पर बरसने' लगती है।
    बड़ा पोता काम पर जा रहा है। दादी-अम्मा पास आ खड़ी हुई। एक बार ऊपर-तले देखा और बोली, 'काम पर जा रहे हो बेटे, कभी दादा की ओर भी देख लिया करो, कब से उनका जी अच्छा नहीं। जिसके घर में भगवान के दिए बेटे-पोते हों, वह इस तरह बिना दवा-दारू पड़े रहते हैं।'
    बेटा दादी-अम्मा की नज़र बचाता है। दादा की ख़बर क्या घर-भर में उसे ही रखनी है! लेकिन दादी-अम्मा जैसे राह रोक लेती है, 'अरे बेटा, कुछ तो लिहाज करो,बहू-बेटे वाले हुए, मेरी बात तुम्हें अच्छी नहीं लगती!'
    मेहराँ मँझली बहू से कुछ कहने जा रही थी, लौटती हुई बोली, 'अम्मा कुछ तो सोचो, लड़का बहू-बेटोंवाला है। तो क्या उस पर तुम इस तरह बरसती रहोगी?'
    दादी-अम्मा ने अपनी पुरानी निगाह से मेहराँ को देखा और जलकर कहा, 'क्यों नहीं बहू, अब तो बेटों को कुछ कहने के लिए तुमसे पूछना होगा! यह बेटे तुम्हारे हैं, घर-बार तुम्हारा है, हुक्म हासिल तुम्हारा है।'
    मेहराँ पर इस सबका कोई असर नहीं हुआ। सास को वहीं खड़ा छोड़ वह बहू के पास चली गई। दादी-अम्मा ऊँचे स्वर में बोली, 'बहूरानी, इस घर में अब मेरा इतना-सा मान रह गया है! तुम्हें इतना घमंड...!'
    मेहराँ को सास के पास लौटने की इच्छा नहीं थी, पर घमंड की बात सुनकर लौट आई।


    'मान की बात करती हो अम्मा? तो आए दिन छोटी-छोटी बात लेकर जलने-कलपने से किसी का मान नहीं रहता।'
    इस उलटी आवाज़ ने दादी-अम्मा को और जला दिया। हाथ हिला-हिलाकर क्रोध में रुक-रुककर बोली, 'बहू, यह सब तुम्हारे अपने सामने आएगा! तुमने जो मेरा जीना दूभर कर दिया है, तुम्हारी तीनों बहुएँ भी तुम्हें इसी तरह समझेंगी। क्यों नहीं, जरूर समझेंगी।' कहती-कहती दादी-अम्मा झुकी कमर से पग उठाती अपने कमरे की ओर चल दी। कड़वे मन से अपनी चारपाई पर जा पड़ी। बुढ़ापे की उम्र भी कैसी होती है! जीते-जी मन से संग टूट जाता है। कोई पूछता नहीं, जानता नहीं।
    घर के पिछवाड़े जिसे वह अपनी चलती उम्र में कोठरी कहा करती थी, उसी में आज वह अपने पति के साथ रहती है।


    आज दादा जब घंटों धूप में बैठकर अंदर आए तो अम्मा लेटी नहीं, चारपाई की बाँह पर बैठी थी। धोती से पूरा तन नहीं ढका था। दादा ने देखकर भी नहीं देखा। अपने-सा पुराना कोट उतारकर खूँटी पर लटकाया और चारपाई पर लेट गए। दादी-अम्मा देर तक बिना हिले-डुले वैसी-की-वैसी बैठी रही। सीढ़ियों पर छोटे बेटे के पाँवों के उतावली-सी आहट हुई। उमंग की छोटी सी गुनगुनाहट द्वार तक आकर लौट गई। अभी कुछ महीने हुए, यही छोटा बेटा माथे पर फूलों का सेहरा लगाकर ब्याहने गया था। बाजे-गाजे के साथ जब लौटा तो संग में दुलहिन थी। सबके साथ दादी-अम्मा ने भी पतोहू का माथा चूमकर उसे हाथ का कंगन दिया था। पतोहू ने झुककर दादी-अम्मा के पाँव छुए थे और अम्मा लेन-देन पर मेहराँ से लड़ाई -झगड़े की बात भूलकर कई क्षण दुलहिन के मुखड़े की ओर देखती रही थी। छोटी बेटी ने चंचलता से परिहास कर कहा था, 'दादी-अम्मा, सच कहो भैया की दुलहिन तुम्हें पसंद आई? क्या तुम्हारे दिनों में भी शादी-ब्याह में ऐसे ही कपड़े पहने जाते थे?'


    मेहराँ बहू-बेटे को घेरकर अंदर ले चली। दादी-अम्मा भटकी-भटकी दृष्टि से वे अनगिनत चेहरे देखती रही। कोई पास-पड़ोसिन उसे बधाई दे रही थी, 'बधाई हो अम्मा, सोने-सी बहू आई है शुक्र है उस मालिक का, तुमने अपने हाथों छोटे पोते का भी काज सँवारा।'


    बहू का श्रृंगार देख दादी-अम्मा बीच-बीच में कुछ कहती है, 'लड़कियों में यह कैसा चलन है आजकल? बहू के हाथों और पैरों में मेहँदी नहीं रचाई। यही तो पहला सगुन है।'
    दादी-अम्मा की इस बात को जैसे किसी ने सुना नहीं। साज-श्रृंगार में चमकती बहू को घेरकर मेहराँ दूल्हे के कमरे की ओर ले चली। मेहराँ बहू पर आशीर्वाद बरसाकर लौटी तो देहरी के संग लगी दादी-अम्मा को देखकर स्नेह जताकर बोली, 'आओ अम्मा, शुक्र है भगवान का, आज ऐसी मीठी घड़ी आई।'


    अम्मा सिर हिलाती-हिलाती मेहराँ के साथ हो ली, पर आँखें जैसे वर्षों पीछे घूम गईं। ऐसे ही एक दिन वह मेहराँ को अपने बेटे के पास छोड़ आई थी। वह अंदर जाती थी, बाहर आती थी। वह इस घर की मालकिन थी। पीछे, और पीछे - बाजे-गाजे के साथ उसका अपना डोला इस घर के सामने आ खड़ा हुआ। गहनों की छनकार करती वह नीचे उतरी। दादी-अम्मा को ऊँघते देख बड़ी बेटी हिलाकर कहने लगी, 'उठो अम्मा,जाकर सो रहो, यहाँ तो अभी देर तक हँसी-ठ_ा होता रहेगा।'


    दादी-अम्मा झँपी-झँपी आँखों से पोती की ओर देखती है और अपने कमरे की ओर लौट जाती है। उस दिन दादी-अम्मा सोई नहीं। आँखों में न ऊँघ थी, न नींद। एक दिन वह भी दुलहिन बनी थी। बूढ़ी फूफी ने सजाकर उसे भी पति के पास भेजा था। तब क्या उसने यह कोठरी देखी थी? ब्याह के बाद वर्षों तक उसने जैसे यह जाना ही नहीं कि फूफी दिन-भर काम करने के बाद रात को यहाँ सोती है। घर के पिछवाड़े में पड़ी फूफी की देह छाँहदार पेड़ के पुराने तने की तरह लगती थी, जिसके पत्तों की छाँह उससे अलग, उससे परे, घर-भर पर फैली हुई थी।


    आज तो दादी-अम्मा स्वयं फूफी बनकर इस कोठरी में पड़ी है। ब्याह के कोलाहल से निकलकर जब दादा थककर अपनी चारपाई पर लेटे तो एक लम्बा चैन का-सा साँस लेकर बोले, 'क्या सो गई हो? इस बार की रौनक, लेन-देन तो मँझले और बड़े बेटे के ब्याह को भी पार कर गई। समधियों का बड़ा घर ठहरा!'


    दादी-अम्मा कुछ कहना चाहते हुए भी नहीं बोली। दादा सो गए, आवाज़ें धीमी हो गईं। दादी-अम्मा पड़ी रही और पतली नींद से घिरी आँखों से नए-पुराने चित्र देखती रही। एकाएक करवट लेते-लेते दो-चार क़दम उठाए और दादा की चारपाई के पास आ खड़ी हुई। झुककर कई क्षण तक दादा की ओर देखती रही। दादा नींद में बेख़बर थे और दादी जैसे कोई पुरानी पहचान कर रही हो। खड़े-खड़े कितने पल बीत गए! क्या दादी ने दादा को पहचाना नहीं? चेहरा उसके पति का है पर दादी तो इस चेहरे को नहीं, चेहरे के नीचे पति को देखना चाहती है। उसे बिछुड़ गए वर्षों में से वापस लौटा लेना चाहती है।


    उस दिन सुबह उठकर जब दादी-अम्मा ने दादा को बाहर जाते देखा तो लगा कि रात-भर की भटकी-भटकी तस्वीरों में से कोई भी तस्वीर उसकी नहीं थी। वह इस सूखी देह और झुके कन्धे में से किसे ढूँढ़ रही थी? दादी-अम्मा चारपाई की बाँहों से उठी और लेट गई। अब तो इतनी-सी दिनचर्या शेष रह गई है। बीच-बीच में कभी उठकर बहुओं के कमरों की ओर जाती है तो लड़-झगड़कर लौट आती हैं. मेहराँ तो कुछ-न-कुछ कहकर चोट करने से भी नहीं चूकती।


    कभी मेहराँ की जली-कटी बातें सोच बेटे पर क्रोध और अभिमान करने को मन होता है, पर बेटे को पास देखकर दादी-अम्मा सब भूल जाती है। कुछ दिन से दादी-अम्मा का जी अच्छा नहीं। दादा देखते हैं, पर बुढ़ापे की बीमारी से कोई दूसरी बीमारी बड़ी नहीं होती। दादी-अम्मा बार-बार करवट बदलती है और फिर कुछ-कुछ देर के लिए हाँफकर पड़ी रह जाती है। दोपहर को नौकर जब अम्मा के यहाँ से अनछुई थाली उठा लाया तो मेहराँ का माथा ठनका। अम्मा के पास जाकर बोली, 'अम्मा, कुछ खा लिया होता, क्या जी अच्छा नहीं?'
    एकाएक अम्मा कुछ बोली नहीं। क्षण-भर रुककर आँखें खोली और मेहराँ को देखती रह गई।
    'खाने को मन न हो तो अम्मा दूध ही पी लो।'
    अम्मा ने 'हाँ' - 'ना' कुछ नहीं की। न पलकें ही झपकीं। इस दृष्टि से मेहराँ बहुत वर्षों के बाद आज फिर डरी। इनमें न क्रोध था, न सास की तरेर थी, न मनमुटाव था। एक लम्बा गहरा उलाहना-पहचानते मेहराँ को देर नहीं लगी।
    डरते-डरते सास के माथे को छुआ। ठंडे पसीने से भीगा था। पास बैठकर धीरे से स्नेह-भरे स्वर में बोली, 'अम्मा, जो कहो, बना लाती हूँ।'
    अम्मा ने सिरहाने पर पड़े-पड़े सिर हिलाया - नहीं, कुछ नहीं- और बहू के हाथ से अपना हाथ खींच लिया।


    मेहराँ पल-भर कुछ सोचती रही और बिना आहट किए बाहर हो गई। बड़ी बहू के पास जाकर चिंतित स्वर में बोली, 'बहू, अम्मा कुछ अधिक बीमार लगती हैं, तुम जाकर पास बैठो तो मैं कुछ बना लाऊँ।'
    बहू ने सास की आवाज़ में आज पहली बार दादी-अम्मा के लिए घबराहट देखी। दबे पाँव जाकर अम्मा के पास बैठ हाथ-पाँव दबाने लगी। अम्मा ने इस बार हाथ नहीं खींचे। ढीली सी लेटी रही।
    मेहराँ ने रसोईघर में जाकर दूध गर्म किया। औटाने लगी तो एकाएक हाथ अटक गया-क्या अम्मा के लिए यह अन्तिम बार दूध लिये जा रही है?
    दादी-अम्मा ने बेखबरी में दो-चार घूँट दूध पीकर छोड़ दिया। शाम को दादा आए तो अम्मा के पास बहू और पतोहू को बैठे देख पूछा,'अम्मा तुम्हारी रूठकर लेटी है या....?'
    मेहराँ ने अम्मा की बाँह आगे कर दी। दादा ने छूकर हौले से कहा, 'जाओ बहू, बेटा आता ही होगा। उसे डॉक्टर को लिवाने भेज देना।'


    मेहराँ सुसर के शब्दों को गंभीरता जानते हुए चुपचाप बाहर हो गई। बेटे के साथ जब डॉक्टर आया तो दादी-अम्मा के तीनों पोते भी वापस आ खड़े हुए। डॉक्टर ने सधे-सधाए हाथों से दादी की परीक्षा की। जाते-जाते दादी के बेटे से कहा, 'कुछ ही घंटे और...।'


    मेहराँ ने बहुओं को धीमे स्वर में आज्ञाएँ दीं और बेटों से बोली, 'बारी-बारी से खा-पी लो, फिर पिता और दादा को भेज देना।' अम्मा के पास से हटने की पिता और दादा की बारी नहीं आई उस रात। दादी ने बहुत जल्दी की। डूबते-डूबते हाथ-पाँवों से छटपटाकर एक बार आँखें खोलीं और बेटे और पति के आगे बाँहे फैला दीं। जैसे कहती हो-'मुझे तुम पकड़ रखो।'
    दादी का श्वास उखड़ा, दादा का कंठ जकड़ा और बेटे ने माँ पर झुककर पुकारा, 'अम्मा,...अम्मा।'
    'सुन रही हूँ बेटा, तुम्हारी आवाज़ पहचानती हूँ।'
    मेहराँ सास की ओर बढ़ी और ठंडे हो रहे पैरों को छूकर याचना-भरी दृष्टि से दादी-अम्मा को बिछुरती आँखों से देखने लगी। बहू को रोते देख अम्मा की आँखों में क्षण-भर को संतोष झलका, फिर वर्षों की लड़ाई-झगड़े का आभास उभरा। द्वार से लगी तीनों पोतों की बहुएँ खड़ी थीं। मेहराँ ने हाथ से संकेत किया। बारी-बारी दादी-अम्मा के निकट तीनों झुकीं। अम्मा की पुतलियों में जीवन-भर का मोह उतर गया। मेहराँ से उलझा कड़वापन ढीला हो गया। चाहा कि कुछ कहे....कुछ.... पर छूटते तन से दादी-अम्मा ओंठों पर कोई शब्द नहीं खींच पाई। 'अम्मा, बहुओं को आशीष देती जाओ....,' मेहराँ के गीले कंठ में आग्रह था, विनय थी।
    अम्मा ने आँखों के झिलमिलाते पर्दे में से अपने पूरे परिवार की ओर देखा, पिता और पुत्र ने एक साथ देखा, अम्मा जैसे हल्के से हँसी, हल्के से....। मेहराँ को लगा, अम्मा बिल्कुल वैसे हँस रही है जैसे पहली बार बड़े बेटे के जन्म पर वह उसे देखकर हँसी थी। समझ गई-बहुओं को आशीर्वाद मिल गया।
    रात बीत जाने से पहले दादी-अम्मा बीत गई। दाह-संस्कार हुआ और दादी-अम्मा की पुरानी देह फूल हो गई। देखने-सुननेवाले बोले, 'भाग्य हो तो ऐसा, फलता-फूलता परिवार।'
    दादी-अम्मा का बेटा निढाल होकर कमरे में जा लेटा। अम्मा की खाली कोठरी का ध्यान आते ही मन बह आया। सपने में देखा, अम्मा द्वार पर खड़ी है। झाँककर उसकी ओर देखती है, 'बेटा, कोठरी में बापू को मिल आओ, यह विछोह उनसे न झेला जाएगा। बेटा, बापू को देखते रहना। बेटे ने हड़बड़ाकर आँखें खोलीं।
    बिना आहट किए मेहराँ आई। रोशनी की। चेहरे पर अम्मा की याद नहीं, अम्मा का दुख था। पति को देखकर ज़रा सी रोई और बोली, 'जाकर ससुरजी को तो देखो। पानी तक मुँह नहीं लगाया।Ó
    पति खिड़की में से कहीं दूर देखते रहे। जैसे देखने के साथ कुछ सुन रहे हों- 'बेटा, बापू को देखते रहना, तुम्हारे बापू ने तो अंत तक संग निभाया, पर मैं ही छोड़ चली।Ó 'उठो।Ó मेहराँ कपड़ा खींचकर पति के पीछे हो ली। अम्मा की कोठरी में अँधेरा था। बापू उसी कोठरी के कोने में अपनी चारपाई पर बैठे थे। नज़र दादी-अम्मा की चारपाईवाली खाली जगह पर गड़ी थी। बेटे को आया जान हिले नहीं।
    'बापू, उठो, चलकर बच्चों में बैठो, जी सँभलेगा।Ó
    बापू ने सिर हिला दिया।
    मेहराँ और बेटे की बात बापू को मानो सुनाई नहीं दी। पत्थर की तरह बिना हिले-डुले बैठे रहे। बहू-बेटा, बेटे की माँ.....खाली दीवारों पर अम्मा की तस्वीरें ऊपर-नीचे होती रहीं। द्वार पर अम्मा घूँघट निकाले खड़ी है। बापू को अंदर आते देख शरमाती है और बुआ की ओट हो जाती है। बुआ स्नेह से हँसती है। पीठ पर हाथ फेरकर कहती है, 'बहू, मेरे बेटे से कब तक शरमाओगी।?'
    अम्मा बेटे को गोद में लिये दूध पिला रही हैं बापू घूम-फिरकर पास आ खड़े होते हैं। तेवर चढ़े। मेरी देखरेख अब सब भूल गई हो। अम्मा बेटे के सिर को सहलाते-सहलाते मुस्कुराती है। फिर कहती है, 'अपने ही बेटे से प्यार का बँटवारा कर झुँझलाने लगे!'
    बापू इस बार झुँझलाते नहीं, झिझकते हैं, फिर एकाएक दूध पीते बेटे को अम्मा से लेकर चूम लेते हैं। बापू अँधेरे में अपनी आँखों पर हाथ फेरते हैं। हाथ गीले हो जाते हैं। उनके बेटे की माँ आज नहीं रही।
    मेहराँ पति के पास आई तो सिर दबाते-दबाते प्यार से बोली, 'अब हौसला करो'... लेकिन एकाएक किसी की गहरी सिसकी सुन चौंक पड़ी। पति पर झुककर बोली, 'बापू की आवाज़ लगती है, देखो तो।'
    बेटे ने जाकर बाहरवाला द्वार खोला, पीपल से लगी झुकी-सी छाया। बेटे ने कहना चाहा, 'बापू'! पर बैठे गले से आवाज़ निकली नहीं। हवा में पत्ते खड़खड़ाए, टहनियाँ हिलीं और बापू खड़े-खड़े सिसकते रहे।
    'बापू!'
    इस बार बापू के कानों में बड़े पोते की आवाज़ आई। सिर ऊँचा किया, तो तीनों बेटों के साथ देहरी पर झुकी मेहराँ दीख पड़ी। मेहराँ अब घर की बहू नहीं, घर की अम्मा लगती है। बड़े बेटे का हाथ पकड़कर बापू के निकट आई। झुककर गहरे स्नेह से बोली, 'बापू, अपने इन बेटों की ओर देखो, यह सब अम्मा का ही तो प्रताप है। महीने-भर के बाद बड़ी बहू की झोली भरेगी, अम्मा का परिवार और फूले-फलेगा।'
    हू सच कहती है। यह सब अम्मा का ही प्रताप है। वह मरी नहीं। वह तो अपनी देह पर के कपड़े बदल गई है, अब वह बहू में जीएगी, फिर बहू की बहू में...।

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